इंसान के पैदा होते ही रिश्तों की बुनियाद शुरू हो जाती है कुछ रिश्ते तो उसे बिरासत में मिलते है तो कुछ उसे अपने दम पर बनाने पड़ते है ये घर की चारदीवारी को लाँघ कर ,गावं की सरहद को पार कर अनजान लोगों के मध्य बनाने होते है , य बन जाते हैं रिश्तों में तो ज्यादातर स्वार्थ के रिश्ते होते है पर इनके बीच इक एसा रिश्ता होता है जो सारे स्वार्थों से परे होता है वह है दोस्ती का रिश्ता,इसके बगैर जीना बेमानी सी लगती है पर इसकी डोर बहुत नाजुक होती है जो भरोसे की नीव पर टिकी होती है................... / नन्हे मुन्ने अबोध बच्चे के बड़े होने के साथ ही रिश्तों की समझ भी उसके कोरे दिमाग में भरने लगती है घर में रिश्तों से हर कदम पर घिरा यह इन्सान ,स्कूल से निकल अजनबी शहर की तरफ बढ़ जाता है अनजान टेढ़े -मेढे आवारा रास्तों पर लोगों के साथ भीड़, संग चलते हुए जाने -अनजाने कितने सख्श के गढ़-अनगढ़, अपरिचित चेहरे, खुली आँखों के सामने से गुजर जाते हैं इनके संग गुज़ारे गये कुछ वक़्त बेवक्त , चंद लम्हों की पहचान, हंसी -ठिठोली से अनजान ,बेवजह जाने कब इक बेहद संजीदा रिश्ता कायम हो जाता है और वो जिन्दगी के लिये कब खास बन जाता है पता ही नही चलता, होश आता है तो हम बहुत आगे निकल चुके होते है जहाँ से वापस मुड़ना बेहद मुश्किल क्या नामुमकिन हो जाता है सच कहूँ तो मै आज एसे ही रिश्तों के साथ बेखटक आगे बढ़ता जा रहा हूँ और कबतक साथ बढ़ता चलूँगा शायद ओ भी मुझे पता न.....हीं...... सिर्फ दिखता है तो स्पंदन, निष्पंदन और अनंत ......अपरिमित ......आ ...का ....श ..
इंसान के पैदा होते ही रिश्तों की बुनियाद शुरू हो जाती है कुछ रिश्ते तो उसे बिरासत में मिलते है तो कुछ उसे अपने दम पर बनाने पड़ते है ये घर की चारदीवारी को लाँघ कर ,गावं की सरहद को पार कर अनजान लोगों के मध्य बनाने होते है , य बन जाते हैं रिश्तों में तो ज्यादातर स्वार्थ के रिश्ते होते है पर इनके बीच इक एसा रिश्ता होता है जो सारे स्वार्थों से परे होता है वह है दोस्ती का रिश्ता,इसके बगैर जीना बेमानी सी लगती है पर इसकी डोर बहुत नाजुक होती है जो भरोसे की नीव पर टिकी होती है................... / नन्हे मुन्ने अबोध बच्चे के बड़े होने के साथ ही रिश्तों की समझ भी उसके कोरे दिमाग में भरने लगती है घर में रिश्तों से हर कदम पर घिरा यह इन्सान ,स्कूल से निकल अजनबी शहर की तरफ बढ़ जाता है अनजान टेढ़े -मेढे आवारा रास्तों पर लोगों के साथ भीड़, संग चलते हुए जाने -अनजाने कितने सख्श के गढ़-अनगढ़, अपरिचित चेहरे, खुली आँखों के सामने से गुजर जाते हैं इनके संग गुज़ारे गये कुछ वक़्त बेवक्त , चंद लम्हों की पहचान, हंसी -ठिठोली से अनजान ,बेवजह जाने कब इक बेहद संजीदा रिश्ता कायम हो जाता है और वो जिन्दगी के लिये कब खास बन जाता है पता ही नही चलता, होश आता है तो हम बहुत आगे निकल चुके होते है जहाँ से वापस मुड़ना बेहद मुश्किल क्या नामुमकिन हो जाता है सच कहूँ तो मै आज एसे ही रिश्तों के साथ बेखटक आगे बढ़ता जा रहा हूँ और कबतक साथ बढ़ता चलूँगा शायद ओ भी मुझे पता न.....हीं...... सिर्फ दिखता है तो स्पंदन, निष्पंदन और अनंत ......अपरिमित ......आ ...का ....श ..
ReplyDeletegyan bhai aapne is photograph ko ek naya aayam sa de diya hai.........bahut..bahut dhanyavaad.
ReplyDeleteसुमीत जी, गज़ब की फोटोग्राफी करते हो ! हार तस्वीर शानदार ! हार फ्रेम अद्भुत !! कमाल है !!!
ReplyDeleteGreat, Just great Sumeet
ReplyDeleteWonderful! My best regards from Romania!
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